बंजारा समुदाय: इतिहास, संस्कृति और टांडा प्रणाली

परिचय: बंजारा, जिन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे ‘गौर’, ‘लंबाणी’, ‘बामणिया’, ‘बाजीगर’, ‘नायक’, ‘गोर राजपूत’, और ‘राजपुत बंजारा’, भारत के कई हिस्सों में बसे हुए एक घुमंतू समुदाय हैं। इनका मुख्य रूप से निवास राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, और उत्तर भारत के कई राज्यों में है। बंजारा समुदाय की उत्पत्ति और इतिहास पर कई शोध और मान्यताएं रही हैं। कुछ का मानना है कि इनकी जड़ें राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में हैं, जबकि अन्य लोग इन्हें अफगानिस्तान से आए हुए बताते हैं। हालांकि, अफगान संस्कृति से उनका मेल नहीं होने के कारण यह विचार व्यापक रूप से स्वीकार नहीं है।

इतिहास और उत्पत्ति: बंजारा समुदाय की उत्पत्ति पर दो प्रमुख धारणाएं हैं। पहली यह कि वे राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से हैं, जहां के मेघावत, वरतीया, झारावत, मुडावत, खेतावत, और अन्य प्रमुख गोत्रों का संबंध बंजारों से है। इनकी सांस्कृतिक विरासत आज भी भारत के विभिन्न प्रदेशों में देखने को मिलती है। दूसरी ओर, कुछ लोग मानते हैं कि इनकी उत्पत्ति अफगानिस्तान से हुई है, लेकिन इस विचार को समर्थन नहीं मिलता, क्योंकि उनकी संस्कृति अफगान परंपराओं से मेल नहीं खाती।

ब्रिटिश काल का प्रभाव: 19वीं शताब्दी में, जब ब्रिटिश शासन के खिलाफ बंजारों ने विरोध प्रदर्शन किया, तब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत रखा। इस अधिनियम ने बंजारा समुदाय को उनके पारंपरिक व्यवसायों को छोड़ने के लिए मजबूर किया, जिसके चलते उनमें से कुछ पहाड़ी और जंगल क्षेत्रों में बस गए। इस ऐतिहासिक बदलाव का असर बंजारों के जीवन और उनके रहन-सहन पर पड़ा।

टांडा सभ्यता: बंजारा समुदाय के रहने के स्थान को ‘टांडा’ कहा जाता है। टांडा एक प्रकार की बंजारा बस्ती होती है, जिसमें उनकी सांस्कृतिक धरोहर और परंपराएं संरक्षित रहती हैं। टांडा का आकार 300 से 3,000 जनसंख्या तक का हो सकता है। प्रत्येक टांडा का नेतृत्व ‘नायक’ करता है, जिसे मराठी में ‘नाइक’ कहा जाता है। नायक के साथ ‘कारभारी’, ‘हसाबी’, ‘नसाबी’, और ‘डायसान’ जैसे प्रमुख व्यक्ति होते हैं, जो टांडा की व्यवस्था में अलग-अलग भूमिकाएं निभाते हैं।

वसंतराव नाइक और टांडा: महाराष्ट्र के हरित क्रांति के जनक, वसंतराव नाइक ने टांडा की प्रणाली को एक नई दिशा दी। टांडा की स्वतंत्र पहचान को पुनर्स्थापित करने के लिए उन्होंने ‘टांडा की ओर चलो’ जैसी अवधारणा को बढ़ावा दिया। यह पहल टांडा के समग्र विकास और उसे आधुनिकता से जोड़ने के लिए की गई थी। वसंतराव नाइक का कहना था कि टांडा के नागरिकों को संविधान के तहत जागरूक और साक्षर होना चाहिए।

टांडा का सांस्कृतिक महत्व: टांडा का मतलब बंजारों के लिए केवल एक गांव नहीं है, बल्कि यह उनकी सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। टांडा में केवल बंजारा भाषा बोली जाती है, और वहां की संस्कृति और परंपराओं को सहेजने के लिए नायक के नेतृत्व में निर्णय लिए जाते हैं। बंजारा राजा ‘लखीशाह बंजारा’, जो दिल्ली के रायसीना और मालची टांडा के प्रमुख थे, को बंजारा इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। लखीशाह बंजारा की वीरता और व्यापारी कौशल की गाथाएं आज भी दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं।

टांडा और सामाजिक सुधार: आज के समय में टांडा को ‘स्मार्ट टांडा’ और ‘ग्लोबल टांडा’ के रूप में विकसित करने की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं। टांडा प्रणाली में रचनात्मकता और आधुनिकता को शामिल कर, उसे संवैधानिक मूल्यों के साथ जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। एकनाथ नायक (पवार) जैसे प्रख्यात विचारक टांडा को एक आधुनिक और सशक्त प्रणाली के रूप में देख रहे हैं, जहां पुरानी रूढ़ियों को नष्ट करके नए युग की ओर बढ़ने की कोशिश की जा रही है।

निष्कर्ष: बंजारा समुदाय की संस्कृति और उनकी टांडा प्रणाली भारत की विविधता का एक अनमोल हिस्सा है। अपने संघर्षमय इतिहास, अद्वितीय संस्कृति और समाज के विकास के प्रति उनके समर्पण ने उन्हें एक विशेष पहचान दी है। ‘टांडा की ओर चलो’ जैसी पहलों के माध्यम से इस संस्कृति को सहेजने और इसे आधुनिक युग से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है, जो भविष्य में बंजारा समुदाय के विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा।

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